करो दशानन अंत


द नरेन्द्र कोहली

सन् 1972 में मेरा एक उपन्यास प्रकाशित हुआ था-आतंक। वह अपने वर्तमान काल के आतंक की कथा कहता था और उसमें यह स्पष्ट था कि अपराधी और राक्षसवृत्ति के लोगों को लाभ पहुंचाकर किस प्रकार शासक वर्ग प्रजा को आतंकित कर अपना राजनीतिक अधिकार बनाए रखता है। मेरे पाठकों ने मुझसे कहा कि उपन्यास में आतंक तो है किन्तु उस आतंक से बचने का कोई उपाय नहीं है। उसका कोई समाधान नहीं है। ऐसे में साधारण व्यक्ति उपन्यास पढ़कर और भी आतंकित हो जाता है। मैंने उस आतंक का समाधान खोजना आरम्भ किया। संयोग ही था कि मैंने अपने कालेज में घटी एक घटना में आतंक का साक्षात् रूप देखा। ढाई-तीन सौ छात्रों की भीड़ के सामने एक गुंडे ने एक छात्र को तीन बार चाकू मारा और भाग गया। पुलिस कभी नहीं आई, क्योंकि पुलिस को प्रात: ही सूचना दे दी गई थी और उनका शुल्क चुका दिया गया था। मैं अपने आपको अत्यंत असहाय पा रहा था। मुझे उस आतंक का विरोध भी करना था और मैं उससे भयभीत भी था। मेरा एकमात्र सहारा पुलिस हो सकती थी किन्तु यहां तो पुलिस ही उन आतंकवादी गुंडों के साथ थी। यदि मुझे उस गुंडे के विरुद्ध गवाही देने के लिए खड़ा कर दिया जाता तो शायद मैं उसे पहचानने का साहस भी नहीं जुटा पाता। इस घटना ने मुझे ऋषि वि·श्वामित्र के आश्रम में ला खड़ा किया। 1971 में बंगलादेश का संघर्ष हो चुका था और मैं देख रहा था कि पाकिस्तान ने किस प्रकार पूरे देश को आतंकित करने के लिए उसके बुद्धिजीवियों की सामूहिक हत्याएं कराई थीं। उनकी स्त्रियों को अपने भोग की सामग्री बनाया था और अपने शस्त्रों के पशुबल से उनको इतना आतंकित कर रखा था कि वे विरोध भी तब ही कर पाए, जब वे चुनाव में जीत चुके थे और शासन का अधिकार पा चुके थे।

मेरी दृष्टि ने रामकथा को विश्वामित्र की आंखों से देखा। रामकथा में सशस्त्र संघर्ष, युद्ध और हिंसा की अनेक घटनाएं चित्रित हैं। राजकीय सेनाओं के सशस्त्र युद्ध राज्य की सीमाओं अथवा राजधानियों में होते हैं, किन्तु नि:शस्त्र और अहिंसक ऋषि-मुनियों तथा अपने काम में लगे साधारण शांतिप्रिय लोगों पर शस्त्र बल से सम्पन्न बलवान राक्षसों का आतंक इस कदर छाया हुआ है कि जन सामान्य का साहस, प्रतिरोध, नैतिक बल तथा तेज सम्पूर्णत: नष्ट हो चुका है। और तो और स्वयं चक्रवर्ती दशरथ रावण का नाम सुनकर पीले पड़ जाते हैं।

सिद्धाश्रम में वि·श्वामित्र अपनी इच्छा से एक यज्ञ तक नहीं कर सकते। उनका यज्ञ आरम्भ होते ही ताड़का रक्त और मांस का खेल आरम्भ कर देती है और वि·श्वामित्र स्वयं को सर्वथा असहाय पाते हैं। और अंतत: उन्हें राम की सहायता लेने के लिए अयोध्या जाना पड़ता है। राम अपनी आंखों से देखते हैं कि ताड़का ने अपने हिंस्र कृत्यों से मलद और करूष नामक राज्यों को सम्पूर्णत: नष्ट कर दिया है। वहां के राजपरिवार समाप्त हो गए हैं और प्रजा पलायन कर गई है। अब वहां मनुष्यों का निवास नहीं है-एक भयानक वन है, ताड़का वन। यह सब ताड़का के पौरुष से नहीं, रावण की सहायता से हुआ है और रावण का सामना करने का साहस कोई नहीं कर रहा है। एक ताड़का के मरने से कुछ नहीं होता, क्योंकि रावण तो अपनी लंका में सुरक्षित बैठा है और वहां से अनेक ताड़काएं सब ओर भेज सकता है।

चित्रकूट में राक्षसों का इतना व्यापक आतंक है कि भरत की सेना के लौट जाने के पश्चात् अनेक भीरु ऋषि मुनि भविष्य में संभावित राक्षसी आक्रमण के भय से वह स्थान छोड़ देते हैं। कुछ ऋषि राम को भी चित्रकूट छोड़ किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाने का परामर्श देते हैं।

शरभंग के आश्रम के बाहर तो उन ऋषियों की हड्डियों का ढेर ही लगा हुआ था, जिनको राक्षस खा गए हैं। यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि जिस समय राम शरभंग के आश्रम में जाते हैं, उस समय इंद्र भी वहीं उपस्थित है, किन्तु मुनियों की रक्षा के लिए इंद्र उनकी तनिक भी सहायता नहीं कर रहा। वह राक्षस शक्ति के सम्मुख असमर्थ था, किन्हीं कारणों से उनकी सहायता चाहता था। अत: उनका समर्थन कर रहा था अथवा स्वयं को सुरक्षित पा, उस राक्षसी आतंक के प्रति उदासीन था। शरभंग आश्रम के मुनि इंद्र से नहीं, राम से रक्षा की याचना करते हैं। "कम्ब' रामायण के अनुसार, जो मुनि राम से रक्षा की प्रार्थना करते हैं, वे कहते हैं कि इंद्र भी राक्षसों के अनुकूल हो गया है। हमने अपने युग में देखा है कि भारत वर्षों से निरंतर कहता आ रहा है कि सीमा पार से आतंकवादी आ रहे हैं किन्तु हमारे समय की महाशक्तियों को वह आतंक कभी दिखाई नहीं दिया, क्योंकि वह आतंकवाद किसी न किसी रूप में उनका कोई हित साध रहा था। उनकी आंखें बंद रहती हैं, किन्तु जब आतंकवाद अमरीका पर आक्रमण करता है, तब ही उनकी आंखें खुलती हैं। इंद्र को भी मेघनाद से पिटने के पश्चात् ही राम की सहायता करने की आवश्यकता का अनुभव होता है।

रामकथा में ऋषि शरभंग को अपनी साधनापूर्ति के पश्चात् योगाग्नि में शरीर त्याग करते हुए दिखाया गया है। किन्तु बुद्धि और तर्क इस व्याख्या को स्वीकार नहीं करते। राक्षसों के द्वारा भक्षित ऋषियों की अस्थियों में घिरे शरभंग के आश्रम में साधनापूर्ति की संभावना बहुत कम है। जो राक्षस वि·श्वामित्र को एक यज्ञ नहीं करने देते वे शरभंग के आश्रम में तपस्या करने की छूट देंगे, यह संभव ही नहीं है। और फिर यह तो दंडकवन है। वहां तो राक्षसों का और भी बड़ा जमावड़ा है। वहां व्यक्ति हताश होकर आत्मदाह ही कर सकता है, और कदाचित् ऋषि शरभंग ने वही किया। वहां लगा हड्डियों का ढेर चेतावनी है कि यदि राक्षसों के विरुद्ध गए तो तुम्हारा भी यही परिणाम होगा। तो क्या करते ऋषि? राक्षसों का साथ वे दे नहीं सकते थे और राक्षस अपने विरोधी को जीवित छोड़ नहीं सकते थे।

ऋषि सुतीक्ष्ण का प्रसंग भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। राम उनके आश्रम में आते हैं और पूछते हैं, "ऋषिवर मैं कहां रहूं?' सुतीक्ष्ण राम के प्रशंसक ही नहीं, समर्थक भी हैं। किन्तु वे देखते हैं कि राम शस्त्रधारी हैं और वे शस्त्र राक्षसों के विरुद्ध प्रयुक्त हुए हैं। भीरु ऋषि सुतीक्ष्ण डर जाते हैं कि राम को अपने आश्रम में ठहराने का अर्थ है, राक्षसों का विरोध मोल लेना। संभवत: जब तक राम वहां रहेंगे, ऋषि सुरक्षित रहेंगे किन्तु राम के विदा होते ही राक्षस मुनि को आ घेरेंगे। फिर?

ऋषि कहते हैं, "राम! वैसे तो मेरा अपना आश्रम ही पर्याप्त सुंदर और सुखद है; किन्तु तुम शस्त्रधारी हो और यहां कुछ उपद्रवी मृग आते हैं। वे अपना उपद्रव नहीं छोड़ेंगे और तुम अपना क्षत्रियत्व। व्यर्थ ही इस सात्विक आश्रम में रक्तपात हो।'

ऋषि के भयभीत मन का आशय राम समझ जाते हैं। वे जानते हैं कि उपद्रवी मृग कौन हैं और उपद्रव क्या है। वे ऋषि को संकट में डालना नहीं चाहते। मुस्कुरा कर उत्तर देते हैं, "हम यहां नहीं ठहरेंगे ऋषिवर।' तेरह वर्षों तक दंडकवन में घूम-घूमकर राम राक्षसों का नाश करते हैं और उसके पश्चात् जब लौटकर पुन: ऋषि के आश्रम में आते हैं तो सुतीक्ष्ण उन्हें सहर्ष अपने आश्रम में स्थान देते हैं। अब उपद्रवी मृगों का भय समाप्त हो चुका था।

रामकथा में ही अगस्त्य ऋषि के संदर्भ में कालिकेय दैत्यों का प्रसंग आता है, जो देवभूमि पर आक्रमण कर, हत्याकांड करते हैं और फिर लौटकर सागर के गर्भ में छिप जाया करते हैं। उन दैत्यों के स्थान को न कोई जानता है और न कोई उनके निकट पहुंच सकता है। अगस्त्य समर्थ ऋषि हैं। उनका आचरण शरभंग या सुतीक्ष्ण के समान नहीं है। न वे सुतीक्ष्ण के समान आतंकवादियों के भय के कारण राम से असहयोग करते हैं और न शरभंग के समान इंद्र की सहायता पाकर आत्मदाह करते हैं। वे अपने सामथ्र्य पर वि·श्वास करते हैं। वे कालिकेय दैत्यों के सम्मुख न असहाय हैं और न उनसे भयभीत हैं। वे सागर को पी जाते हैं और देवों के लिए छिपे हुए दैत्यों तक जाने का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं। यह अगस्त्य का ही सामथ्र्य था, जिसके कारण देवगण दैत्यों से अपना प्रतिशोध लेने में सफल होते हैं और उनका समूल नाश करते हैं।

जनस्थान में शूर्पणखा अपने सेनापतियों-खर, दूषण और त्रिशिरा के साथ वर्तमान है, किन्तु रामकथा उसके आतंक और त्रास का चित्रण नहीं करती-उसके भोग का चित्रण करती है, जो आतंकवाद का स्वाभाविक मित्र है। स्पष्ट है कि शूर्पणखा किसी नैतिक नियम अथवा किसी के मानवाधिकार को मान्यता नहीं देती और अपने भोग के मार्ग में आने वाले लोगों को अपने बल से आतंकित करती है। राम और लक्ष्मण के सम्मुख कामयाचना में असफल होकर उसका क्रोध सीता पर केन्द्रित होता है। वह मानती है कि सीता के ही कारण राम और लक्ष्मण उसका तिरस्कार कर रहे हैं। अत: वह सीता पर प्राणलेवा आक्रमण करती है।

रावण का आतंक एक व्यक्ति के रूप में भी है और एक राजनीतिक शक्ति के रूप में भी। उसका शासन एक आतंकवादी देश का काम करता है, जो संसार में कहीं भी आतंक फैला सकता है। वह स्वेच्छाचारी, अनाचारी और क्रूर शासक है। उसने विभिन्न प्रदेशों में अपने अनुयायी छोड़ रखे हैं, जो स्थानीय अपराधियों को अपने साथ लेकर शांतिप्रिय जनसाधारण को पीड़ित और प्रताड़ित करते हैं। सारी पृथ्वी उससे आतंकित है। देवभूमि तक उससे त्रस्त है। वह सैनिक आक्रमण कर लोगों से धन और संपत्ति छीन लेता है। हत्याएं, बलात्कार और अपहरण करता है। अपने इन दुष्कर्मों को वह राक्षसधर्म की संज्ञा देता है, और उसमें गर्व का अनुभव करता है। पशुबल के कारण उसका अहंकार उस ऊंचाई तक जा पहुंचा है कि उसका अपना भाई विभीषण भी उसके अनाचार का विरोध करता है, तो वह उसे पाद प्रहार कर बाहर निकाल देता है। ज्ञातव्य है कि वह स्वयं को अत्यंत धार्मिक, तपस्वी विद्वान और शिव का भक्त मानता है। सारे राक्षसी कृत्यों को वह धर्म की सहायता से करना चाहता है।

सम्पूर्ण रामकथा राक्षसों के व्यक्तिगत और संगठित आतंक से भरी पड़ी है। ऋषि मुनियों और बुद्धिजीवियों से उनकी विशेष शत्रुता है। अर्थात् वे स्वतंत्र चिंतन के भयंकर शत्रु हैं। वे अपने संकीर्ण, सीमित और क्रूर चिंतन से भिन्न कोई स्वर नहीं सुन सकते। ऋषि अविकसित समाज का बौद्धिक और आत्मिक नेतृत्व करता है, ताकि उसका बौद्धिक विकास हो सके। राक्षस समाज को आतंकित करता है, ताकि उसका पोषण कर सके। उसके आतंक के कारण सात्विक लोग भय से मौन हैं और असुर वृत्ति वाले अपराधी क्रमश: उच्छृंखल और क्रूर होते जाते हैं। दूसरों को पीड़ित करने में उन्हें सुख मिलता है। विरोध और कबंध जैसे गंधर्व और यक्ष भी राक्षस हो गए हैं और जनसामान्य का रक्तपान कर रहे हैं। उनका आतंक इस सीमा तक बढ़ गया है कि जनसामान्य और शासक लोग आत्मवि·श्वास और आत्मनिष्ठा से वंचित हो, सर्वथा असहाय हो चुके हैं और यही राक्षसों की विजय है। राम उस पराजित जनमानस में पुन: आत्मनिष्ठा और आत्मवि·श्वास का विकास करते हैं और उनका भय दूर करते हैं। राक्षसों की मूल शक्ति है भय और उसका उपचार है निर्भयता। भय मनुष्य की हीन वृत्ति है, जो राक्षसों की सहायक है और निर्भयता मानव जन की उदात्त और सात्विक शक्ति है, जो राक्षसत्व का नाश करती है।

वि·श्वामित्र इस आतंक का सामना करने वाले पहले ऋषि हैं और राम को राक्षसी आतंक से परिचित कराने और उसका विरोध करने की दीक्षा देने वाले भी वे ही हैं। राम देखते हैं कि आतंक की जड़ है-रावण। उसका विरोध करने का सामथ्र्य रखने वाले देवगण उससे उदासीन भी हैं और भयभीत भी। उसने दूर-दूर तक चर छोड़ रखे हैं। उसका तंत्र इतनी दूर तक फैला है कि लगता है कि उसे पराजित किया ही नहीं जा सकता। पहले तो उस आतंक रूपी वृक्ष की एक टहनी ताड़का और सुबाहु का वध करते हैं। द्रष्टव्य है कि राम सेनाओं के साथ जाकर यह काम नहीं करते। यह उनका आत्मबल है, उनकी निर्भीकता है, जिसे देखकर सहस्रों लोगों में रामत्व जागता है। वे अपना युद्ध स्वयं लड़ते हैं, किसी और की सहायता मांगने वे नहीं जाते। राम उसके आक्रमण की प्रतीक्षा नहीं करते। दंडकवन में भी वे अपने बल पर ही राक्षसों को समाप्त करते चलते हैं। परिणामस्वरूप जटायु जैसे उनके साथी अपने आप ही उनके निकट आते जाते हैं। मैं कल्पना करता हूं कि असहाय प्रजा को जहां राम ने आत्मबल से प्रेरित किया, वहीं उन्हें शस्त्रों का प्रशिक्षण और उनका निर्माण भी अवश्य ही सिखाया होगा।

रावण का दूसरा स्कंधावार जनस्थान में शूर्पणखा के साथ है। राम अगस्त्य की प्रेरणा से निर्भीक होकर पंचवटी में निवास करते हैं। उनके आसपास प्रशिक्षित प्रजा है। उसके तेज से राक्षसों में भी खलबली मचती है। किन्तु शूर्पणखा का ध्यान उस सैन्य प्रशिक्षण की ओर न होकर अपने भोग की ओर है। अत: वह खर, दूषण और त्रिशिरा के साथ दस सहस्र योद्धा भेजती है कि वे सीता और लक्ष्मण का वध करें और राम को बंदी कर उसके चरणों में डाल दें। राम के द्वारा दस सहस्र योद्धाओं के मारे जाने के पश्चात् रावण में भी यह साहस नहीं रहता कि वह सम्मुख युद्ध में राम को पराजित कर सीता का अपहरण करे। वह वेश बदलकर, नाटक कर सीता का अपहरण करता है और भागकर लंका में छिप जाता है। अब राम के लिए आतंक के गढ़ पर आक्रमण करना आवश्यक है। उसके घर में घुसना है। शत्रु को उसके बिल में से निकाल कर मारना है। यह पता लगाना भी आवश्यक है कि सीता को कहां बंदी किया गया है और शत्रु के बल को भी तौलना है।

वे अपने मित्र ढूंढते हैं। संयोग से उनकी भेंट सुग्रीव से होती है। सुग्रीव रावण को नहीं जानता किन्तु वह अपने भाई बाली से इस सीमा तक आतंकित है कि अपना घरबार छोड़कर अपने अति वि·श्वसनीय साथियों के साथ पर्वतों और वनों में छिपता फिर रहा है। किसी भी शस्त्रधारी को देखकर आशंकित हो उठता है कि कहीं, उस शस्त्रधारी को बाली ने ही तो उसका वध करने के लिए नहीं भेजा है। वह भृतक हत्यारा तो नहीं है, जो उसके प्राण लेने आया है। राम उसके साथ मैत्री करते हैं। वे बाली की सहायता भी ले सकते थे किन्तु बाली की सहायता लेकर वे रावण का आतंकवाद कैसे समाप्त करते। मित्र के मित्र से युद्ध नहीं किया जा सकता। उन्होंने बाली के स्थान पर अपने बल और शौर्य पर निर्भर रहना उचित समझा। दुर्बल और भयभीत सुग्रीव की सहायता की और रावण के मित्र बाली का वध कर दिया। सुग्रीव की सेना-जो कोई प्रशिक्षित सशस्त्र सेना न होकर साधारण जन ही हैं, को साथ लेकर लंका की ओर बढ़ते हैं। राम का युद्ध तीन धरातलों पर चलता है-(1) स्वयं आक्रामक होना, (2) शत्रु के शत्रुओं को शरण देना, अर्थात् आतंकवादी शत्रु से उसके घर में बसे हुए सात्विक विभीषण जैसे लोगों को पृथक करना, (3) न्याय का पक्ष लेकर युद्ध करने वाले सारे योद्धाओं को अपने साथ लेना और (4) अंतत: इंद्र जैसी भयाक्रांत महाशक्ति की सहायता भी स्वीकार करना।

राम का रावण के साथ युद्ध न जय के लिए है, न राज्य के लिए। यह एक ओर न्याय और मानवता का युद्ध है, दूसरी ओर प्रतिशोध का। क्षत्रिय दुष्टदलन न करे, तो उसका क्षत्रियत्व सार्थक कैसे हो सकता है। वस्तुत: संसार में असुर तभी शक्तिशाली होते हैं, जब सात्विक दैवी शक्तियां कोमल अथवा भीरू हो जाती हैं और आतंक को उसके जन्म लेते ही नष्ट नहीं करतीं। इंद्र जैसी महाशक्तियां अपने स्वार्थ और अहंकार में यदि रावण का आतंक समाप्त न करें तो फिर राम का आविर्भाव होता है, जो असुरों का आतंक समाप्त कर फिर से सात्विक शक्तियों का प्राबल्य स्थापित करते हैं।