कही-अनकही

क्या बिल ला दें?

द दीनानाथ मिश्र

कल सोवियत संघ विश्व की महाशक्ति था। कोई ताजुज्ब नहीं कल "अमरीका भी महाशक्ति था' हो जाए। एक मित्र अभी हाल में अमरीका के आलीशान शहर लास एंजेलिस गए थे। 11 सितम्बर के तीन-चार हफ्ते बाद उन्होंने देखा और लिखा। जिस उड़ान में गए उसमें इक्के-दुक्के अमरीकी थे। हवाई अड्डे पर वीरानगी थी। कुछ कर्मचारी थे और बाकी विदेशी। सड़कों और बाजारों में मुर्दनी छाई थी। दुकानें सूरज डूबने के पहले डूब जाती हैं। लोग घरों में टीवी के हवाले हैं। टीवी पर अल-जजीरा पर लगभग प्रतिबंध है। जो कुछ सी.एन.एन. में दिख जाता है वही दहशत में डालने के लिए काफी है। अल-जजीरा? तौबा कीजिए। बात सिर्फ लास एंजेलिस की ही नहीं, पूरे अमरीका की यही स्थिति है।

बाजार में भयानक मंदी है। बाजार ही अमरीका का माई-बाप है। बाजार नहीं, तो कुछ भी नहीं। इस तरह की सैकड़ों खबरें आई हैं कि हमले के डेढ़ महीने के बाद घरों के सुरक्षित कवच में मुख्यत: दो गतिविधियां बची हैं। टीवी दर्शन और काम मर्दन। एंथ्रेक्स नामक बीमारी का कितना भयानक आलम है? लोग घरों में चिट्ठी खोलने के पहले हाथों में दस्ताने पहन लेते हैं और चेहरे को किसी तरह के नकाब से ढक लेते हैं, तब चिट्ठी पर हाथ डालने का साहस जुटाते हैं। भयानक निराशा है। 11 सितम्बर ने अमरीका का सब कुछ बदल कर रख दिया। बिन लादेन भले ही किसी पहाड़ी गुफा में छिपा होगा। मगर वह एक लड़ाई तो जीत गया। आम अमरीकी का मनोबल देख लीजिए।

स्वतंत्र, भयमुक्त, समृद्ध और खुले समाज बनाने का जो सिलसिला चल रहा था, उस पर करीब-करीब स्थाई ब्रोक लग गया है। एक अमरीकी नेता की उक्ति का सहारा लें तो कह सकते हैं कि इधर अमरीकी फौजें, बीस-बीस लाख की मिसाइलें, अफगानिस्तान में एक ऊंट की दुम को निशाना बना रहे हैं। भारत ने भी आतंक देखा है। हजार साल से देखता रहा है। मुम्बई में डेढ़ दर्जन ठिकानों पर एक साथ विस्फोट किए गए थे। 300 लोग मरे, इससे कहीं ज्यादा घायल हुए थे। दहशत का माहौल रहा। मगर चौथे दिन धूल झाड़-पोंछ कर मुम्बई फिर काम पर लग गई थी। इधर अमरीका में जहां देखो वहां आतंक ही आतंक है। टीवी खोलकर देखो अमरीका को तहस-नहस करने की नई धमकी। चैनल बदलें तो शेयर बाजार रसातल में। अगले चैनल पर रासायनिक हमलों के डर से अमरीका का सर्वोच्च सदन 5 दिन के लिए बंद। बुश ने कहा यह लड़ाई और गहरा सकती है।

वि·श्व-व्यापार केन्द्र के दोनों टावर ध्वस्त हो गए। मलवा हटाने का काम चल रहा है। डेढ़ महीने गुजर गए। अभी मलवा नहीं हटा है। अब अनुमान है कि इसको हटाने में डेढ़ साल लगेंगे। कमाल की कुशलता है। शायद मलवा हटाने की बेहतर मशीनों का आविष्कार पहले होगा, मलवा बाद में हटेगा। हमारे यहां भी भूकम्प आया था। भुज के कई कस्बे मटियामेट हो गए थे। मगर महीने डेढ़ महीने में मलवा साफ कर दिया गया। उसे भी सुस्त कार्रवाई कहा गया। चुस्त कार्रवाई का नमूना मैनहट्टन के वि·श्व व्यापार केन्द्र के मलवे के ढेर में नजर आ रहा है। हमारे यहां पंजाब ने एक दिन नहीं, पूरे दस साल तक दहशत देखी। आतंकवाद की दहशत के भयानक नजारे थे। मगर आज पंजाब फिर "बल्ले-बल्ले' की तान पर थिरक रहा है।

उधर इकलौती घटना ने वि·श्व की सबसे बड़ी महाशक्ति के पूरे समाज की फूंक निकाल कर रख दी है। अमरीका रोजाना भयानक से भयानक हवाई हमले कर रहा है। मगर तालिबानी कहते हैं कि "आने दो अमरीका को जमीनी लड़ाई में। अमरीकी फौजियों को हम सड़कों पर घसीट-घसीट कर मारेंगे।' सवाल है कि उन लोगों का क्या किया जाए जो मरने से नहीं डरते, शहादत को बड़ी भारी सफलता मानते हैं। संकेत तो कुछ ऐसे ही मिल रहे हैं कि इस लड़ाई में अमरीका की प्रतिष्ठा खर्च हो जाएगी। एक चुटकुला चल पड़ा है। लोग पूछ रहे हैं पाकिस्तान और भारत की यात्रा के लिए बुश क्यों नहीं आए? पावेल को क्यों भेज दिया? उन्हें शंका थी कि यहां आने पर पांच सितारा होटल के किसी रेस्तरां में अगर किसी बेयरे ने यह सवाल पूछ लिया तो चेहरा झूठ नहीं बोलेगा। क्या बिल ला दें?